यह रोग कर्नाटक, तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र में विशेषकर और उत्तरी व पूर्वी भारत में कहीं-कहीं होता है। वर्षा ऋतु में इसका प्रकोप
अधिक होता है। 6 माह से 3 वर्ष के गौवंशीय पशु अधिक प्रभावित होते हैं। भैंसों में लक्षण हल्के होते है। बीमारी के कीटाणु खाने के साथ या
घाव के द्वारा शरीर में घुसते हैं।
लक्षण
- अचानक तेज ज्वर (107-108°F) आता है, पशु खाना-पीना व जुगाली करना बंद कर देता है।
- पिछले पुढे पर सूजन आती है जो छूने में गर्म होती है। इस सूजन में दर्द होता है और पशु लंगड़ाने लगता है। कभी-कभी गले व पीठ पर
भी सूजन व दर्द होता है। - लक्षणों के आने के 24 से 48 घंटे में मृत्यु हो जाती है। मृत्यु के समय ज्वर खत्म होने लगता है, सूजन भी ठंडी पड जाती है और उसमें गैस
होने के कारण दबाने पर चुर्र-चुर्र की आवाज (Crepitating sound) आती है।
रोकथाम
- जिस क्षेत्र में यह बीमारी होती रहती है, वहां पशुओं को नियमित टीका लगवाना चाहिये।
- मृत्यु के बाद रोगी पशु को गहरा गड्ढा खोद कर चूना डाल कर गाड़ देना चाहिये या जला देना चाहिये, जिससे रोग के कीटाणु आसपास
के स्वस्थ पशुओं को प्रभावित न करें।
उपचार
- बीमारी होने के बाद इलाज करवाना उपयोगी नहीं है, पर फिर भी पशुचिकित्सक से उचित सलाह लेनी चाहिये।
यदि आपके क्षेत्र में प्रकोप है इस रोग का
तो लगवाएं नियमित टीका लंगड़ा बुखार का।